सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज के प्रवचन (17-नवंबर-2019, 72वां निरंकारी संत समागम, दूसरा दिन, समागम ग्राउंड, समालखा)
सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज के प्रवचन (17-नवंबर-2019, 72वां निरंकारी संत समागम, दूसरा दिन, समागम ग्राउंड, समालखा)
साध संगत जी प्यार से कहना
🙏धन निरंकार जी🙏
1) आज इस समागम के दूसरे दिन जहां सुबह सेवादल रैली को भी हमें देखने का अवसर मिला और उसमें भी प्रदर्शित होने वाले, चाहे वह स्किट का फॉर्म था या एक मस्क्युलर मलखम या जो भी उन्होंने अपनी फिटनेस दिखाने के लिए, कि कैसे सेवा के मैदान में, जहां तन को भी हमें तंदुरुस्त रखना होता है, मन को भी, और ऐसे ही अपने दुनियावी रूप में कार्य करते हुए। तो वह जहां मन से हमें अपनी मैल निकालनी है और साथ में अपने आप को स्वस्थ भी, वैसे भी रखना है।
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2) तो वह सब जब भावनाएं दिखी और कैसे कि सेवा दल की वर्दी में सब सजे हुए उन्हीं भावों को जो इतने समय से हमारे मिशन में यह वर्दी सिर्फ एक वस्त्र के रूप का प्रतीक नहीं है, पर वह एक अपने आप में ही एक भाग है जो हर एक गुरसिख में है, चाहे वह वर्दी पहनते हो या वह आम कपड़ों में आज सत्संग अटेंड करने आए आप संगत हैं।
3) तो इसलिए सेवा का भाव जो मन में है, तो दातार उस भाव को जहां और प्रबल करे, साथ ही यह जो हमारा, आज भी पूरा दिनभर भी हम यही सुन रहे थे कि कैसे हमारे इतिहास में कि जो 90 वर्षों का जिक्र बार-बार हुआ, तो दासी ने भी जहां कल वो अवसर प्राप्त किया आपसे सांझा करने में, कि कैसे बाबा बूटा सिंह जी, बाबा अवतार सिंह जी और जगत माता जी का।
तो वैसे ही आज उसी लड़ी को आगे बढ़ाते हुए, बाबा गुरबचन सिंह जी और राजमाता जी का जिक्र करके आपके चरणों में दासी वो भाव रखना चाहेगी।
4) कि कैसे उन्होंने भी अपने इस मिशन को इकट्ठे एक साथ रहकर, एक उस तरह आगे बढ़ाने के लिए कितना उनका भी वही पीरियड इतना डिफिकल्ट रहा। कि कैसे चाहे वह रस्ते भी, यात्राएं करी, अब्रॉड भी गए और वह इतना साधन भी उस समय नहीं ठीक से, पर फिर भी उन परिस्थितियों में भी कैसे इकठ्ठे होकर उन्होंने उस समय भी कि, बेस्ट अपने रिसोर्सेज का कैसे यूज़ करा जाए, उस तरह भी जो किया उसमें भी कुछ शिकवे नहीं रखते हुए, बस कैसे हम आगे जल्दी एक प्रचार और फैला सकें, सिर्फ अपने देश में ही नहीं, बाहर भी।
5) तो वह वाले भी जहां भाव रखें, और भी इतनी शिक्षाएं कि कैसे, बहनों को भी बढ़ावा, एक हमारे सोशल कॉसेस पर भी उन्होंने बहुत, साधारण शादियों की जहां बात आती है और भी इतने सारे जो सोसाइटी के लिए हम एक अच्छे प्रभाव छोड़ें, ऐसे भावों के लिए कि एक सोसाइटी एक साथ अपलिफ्ट भी होये।
6) जो इन्होंने ऐसे योगदान और अन्य कितने और दिए जहां, वहां पर हमको संगत को भी यही सीखना है कि तब से भी लेकर और अभी तक भी, चाहे हम कितने उस तरह, गिनती के हिसाब से अब तो हम कितने बढ़ गए और आगे ना जाने निरंकार ने इस मिशन के साथ कितनी रूहों को और जोड़ना है। तो हम सबका भी जहां ये कर्तव्य है कि जहां हमारे पास एक चॉइस है, हम चाहे दिखते सब इंसान के चोले में है, पर हैं तो रुहें, जो इस परमात्मा का अंश हैं।
7) और हमारा, जो एक बोलते हैं जिसे साधारण भाषा में कि अगर हमारा कपड़ा एक जो होता है जिससे हमें कुछ भी सिल सकते हैं, तो वह रूह तो हमारी यह परमात्मा ही है, यह निरंकार का ही अंश है, तो गुण भी वही होने चाहिए। जो हमको, अब इस शरीर में आए हैं तो अपने आप में जहां और कार्यों में हम ज्यादा व्यस्त हो जाते हैं और अपनी रूह पे इतना ध्यान नहीं दे पाते, तो उसको जहां निखारना है, उसको अपना असली एक पहचान से रूबरू कराना है।
8) तो वह ब्रह्मज्ञान द्वारा जहां हमारे जीवन में वह भी आए और उसमें भी उसकी कदर डलती रहे और कैसे हम अपने आप को और निखार सकें। जहां वो तो है ही, पर अगर सामाजिक भी रूप में भी देखे कि हम सब दिखने में चाहे एक इंसान के पुतले की तरह एक इंसान हैं।
9) तो फिर भी जैसे एक वह उदाहरण है कि माचिस की अगर बहुत सारी तीलियां हों, तो उनके साथ भी, एक माचिस से हम क्या-क्या कर सकते हैं, एक माचिस से चाहे तो हम दिया जला सकते हैं और उसी माचिस से अगर हम चाहे तो किसी का घर भी जला सकते हैं।
तो दिखने में तो वह सभी माचिस हैं, सब एक जैसी हैं, पर कार्य क्या कर रही है वह माचिस, वो इंटेंशन का जो फर्क आता है, जो बात है, कि हमने कैसे अपने आप को मानवीय गुणों से युक्त रखना है, कोई भी विपरीत सोच नहीं रखनी, किसी के लिए भी।
10) कुछ अपने आप में यह नहीं देखना कि ऊंच-नीच ये क्या है जाति-पाति, सब इसी परमात्मा के बनाए हैं, अपने जैसा ही सामने वाले को उतना ही इज्जत देना है। और अगर हम यहां पे भी, सेवा के मैदान में भी, या कहीं पे भी, अगर ऐसे देख रहे हैं कि कोई ओहदों के साथ नहीं जुड़ना, हमें सिर्फ अपने आप को ये दास भाव में रखना है क्योंकि फिर जितना ज्यादा या ओहदे जो मिल रहे हैं, वो मुबारक हैं, पर हमारे मन का जो भाव है, वह दास भाव ही होना चाहिए।
11) क्योंकि यह ओहदों के लिए किसी शायर ने यह भी लिखा है कि :-
गली में मकान थे, मकानों पे नाम थे,
नाम के साथ ओहदे थे, बहुत देखा कोई इंसान ना मिला।
तो ये बात हमारे साथ ना हो जाए कि इतने देखने में जहां अगर घरों में अब सब अपनी दुनिया में कुछ ना कुछ कर रहे हैं, कुछ अगर हासिल कर रहे हैं, तो वह हासिल हमारी उपलब्धि के साथ एक हम्बलनेस, एक नम्रता, एक भाव कि हलीमी वाले गुण, कि हम जो भी हैं, यह कृपा से ही हैं, नहीं तो हममें ऐसी कुछ ऐसी बात नहीं, कि हम कुछ सराहनीय कार्य कर भी सकें या किसी की नजर में इज्जत कमा सकें, तो जो भी गुण अगर पल्ले हैं, तो वो सिर्फ इस परमात्मा के, इस निरंकार के दिये हुए हैं।
12) और कैसे हमें सिर्फ अपना वो सदुपयोग की तरफ ही हमारा पूरा एनर्जी लगना चाहिए कि अगर कोई भी दात है हमारी झोली में, तो उससे हम किसी का नुकसान ना कर दें। उस माचिस की तीली की तरह ना बन जाएं जिसने घर जला दिए।
तो बस हमें यह बात हमेशा याद रखते हुए कि कैसे हम इस संसार में अगर मनुष्य का चोला लेकर आए हैं, तो फिर वह हमको एक सही मायने में एक इंसान भी बनना है। हमारे मन के भाव भी फिर बिल्कुल वह इंसानियत का ही प्रमाण दें। वह कुछ हैवानियत का ना एक हमारे को वो दृश्य देखने को मिले।
13) और हम सिर्फ यहां सत्संग आकर जो सिर्फ आज कितने महात्माओं ने इतनी अच्छी बातें सांझा की साथ में, और कैसे हमें उन बातों को अपने जीवन में उतारना है।और साथ ही सिर्फ अपने तक ही नहीं, बल्कि यह ज्ञान रूपी रोशनी जितनों को भी हम, जितनी रुहें और उसमें अपना मुख उज्ज्वल कर सकें, उनको भी यही प्रेरणा देनी है।
14) पर प्रेरणा कैसे देनी है, बोलकर नहीं, बोलना जहां जरूरी है वहां बोले भी, पर उससे पहले अपने दिमाग में, अपनी सोच में, अपने व्यवहार में ढालकर, अपने बोलों को मीठा करके, किसी का दिल दुखाने वाली बात नहीं, सिर्फ आंसू पौंछने, और किसी तरह हम किसी दूसरे की जिंदगी में अगर कम्फर्ट दे सके, तो उस भाव से हमने उन तक भी यह इलाही दात, जो हमें हासिल है, उन तक देनी है।
15) तो दासी ओर समय नहीं लेगी क्योंकि सत्संग 9:00 बजे तक ही था और अब वह समय हो गया है और आप सब अभी कतारों में और भी हैं जहां आपके अब दर्शन करने को मिलेंगे। और दासी को जब पता लगा कि शायद एक घंटा ओर अभी कतारें चलेंगी, तो दासी को यही बात कि जितने आप घंटों लग करके लाइन में जब दर्शन करने आते हैं, तो दासी को भी आपके वही चेहरे वही दर्शन करके उतनी ही खुशी होती है जितनी आप सब, कब से आते हैं अपने घरों से दूर-दूर, अपने गृहस्थी की रिस्पांसिबिलिटीज भी सब पर होती हैं, फिर भी वह समागम के लिए कुछ देर के लिए, वह प्रायोरिटी समागम को मानकर जब आते हैं।
16) तो दातार वही कृपा हर एक पर करे, जहां तन-मन-धन के सुख हर एक को दे, वही ये मन में हमारे जब-जब इस परमात्मा का एहसास है, सही मायने में तो बस उतना जीवन ही हम जी रहे हैं। बाकी सब जो भी समय निकला, इस परमात्मा के एहसास में नहीं, वह तो सिर्फ हम ऐसा नहीं कह सकता कि जिंदगी जी रहे हैं, वह तो सिर्फ सांस लेने वाली बात है।
तो दातार सभी पर कृपा करे कि हम असल मायने में मनुष्य बनकर ही यह जीवन जियें।
साध संगत जी प्यार से कहना
🙏धन निरंकार जी।🙏
Dhan nirankar ji
ReplyDeleteDhan Nirankar ji mahapursho ji
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